
पुस्तक: जूठन: पहला खंड, ओमप्रकाश वाल्मीकि: १९९७, राधाकृष्णन प्रकाशन, २०११ एडिशन, जनवरी २०१५, भारत, पृष्ठ १६४, आई. ऐस. बी. न. ९७८८१७११९८५४२, ३२७ रुपये
शैक्षणिक संस्थानों में समानता व सम्मान का इंतज़ार करता दलित समाज
या
शैक्षणिक संस्थानों में समानता व सम्मान की लड़ाई लड़ता दलित समाज
कुछ दिन पहले ही विश्व प्रतिष्ठित भारतीय प्रोद्यिगिकी संस्थान, बॉम्बे में एक दलित छात्र, दर्शन सोलंकी, की संस्थानिक हत्या देखी गयी । खुद के ऊपर थोड़े सी चोट आ जाने पर इन्सान कई दिनों तक अपने आप को संभाल करके रखता है तो आखिर कैसे दर्शन ने खुद की जान ले ली? क्या यह संस्थानिक हत्या इस बात को इंगित नहीं करती है कि भारतीय समाज में समानता व न्याय जैसे शब्द खोखले हैं और जातिवाद ने इस देश के हर संस्थान व घटना को अपने विषैले दंश से प्राणविहीन कर रखा है? मनुवादी व ब्राहमणवादी व्यवस्था में शुद्र व पंचम वर्ण को शिक्षा का कोई अधिकार नहीं था | तथाकथित भारतीय गुरु परम्परा व प्राचीन गुरुकुल व्यवस्था केवल एक अग्रहारों का संस्थान था जिसमें शिक्षक द्रोणाचार्य, एकलव्य जैसे आदिवासी बालकों के शिक्षित होने की अभिलाषा को अंगूठे मांग कर कुचल देते थे । लेकिन ऐसा क्यों है कि प्राचीन भारत की यह अमानुषिक व सड़ी हुई व्यवस्था आजाद भारत में भी जातिविहीन समाज की कल्पना की नींव रखने वाले संवैधानिक देश में समानांतर चलती रही ? आखिर कैसे हमारे शैक्षणिक संस्थान प्राचीन भारत के अग्रहारा की खौफनाक परछाई को अब भी जगह दे रहे है और कैसे यहाँ के शिक्षकों का व्यवहार आधुनिक द्रोणाचार्य के खौफनाक प्रतिरूप को परिलक्षित कर रहा है ? क्या दलित छात्र-छात्राओं के साथ ऐसे जातिवादी भेदभाव इन शैक्षणिक संस्थानों के भीतर ही उन्हें निर्वासन की जिन्दगी जीने को मजबूर नहीं करती है ? जहाँ पर हमारे पास दर्शन, पायल व रोहित जैसे छात्र-छात्राओं के ह्रदय द्रवित करने वाले उदाहारण हैं जो आधुनिक द्रोणाचार्य के प्रतिदिन के जातिवादी दंश को झेल नहीं पाए तो वहीं पर इन अमानुषिक व्यवस्था से लड़ने की हिम्मत देने वाली कई जिदादिल कहानियाँ भी समाज में उपलब्ध हैं | इन सवालों को समझने के लिए हमें उन्हीं व्यक्तियों के अनुभवों को टटोलना होगा जिन्होंने इस व्यवस्था से उबरने के लिए इंतज़ार के बदले प्रतिदिन संघर्ष व असरसन के माध्यम से इन अग्रहारा व आधुनिक द्रोणाचार्यों जैसी सोच को चुनौती देने का उदाहरण प्रस्तुत किया है |
यह आलेख इस संदर्भ में ऐसी ही एक पुस्तक ‘जूठन’ (जो आत्मकथा के रूप में लिखी गयी है) के प्रयोग पर आधारित है जो इन सवालों को समझने का प्रयास प्रस्तुत करती है ।
शिक्षक या आधुनिक द्रोणाचार्य ?
लेखक ओमप्रकाश का जन्म जिस जाति में हुआ, मनुवादी व्यवस्था में इस जाति का काम मरे हुए जानवरों की चमड़ी उतारने का निर्धारित किया गया था । लेकिन स्वतंत्र भारत में क्रांतिकारी ग्रंथ संविधान ने समाज के हर एक वर्ग को शिक्षा का अधिकार दिया । लेकिन क्या भारत का प्रत्येक समाज इन अधिकारों का समान प्रयोग कर पाया या अभी भी कर पा रहा है ?
ओमप्रकाश वाल्मीकि अपनी आत्मकथा में लिखते हैं कि जब वो पहली बार विद्यालय गये तो वहाँ के हिन्दू धर्म के तथाकथित उच्च जाति के त्यागी समाज के शिक्षकों ने कई दिनों तक उनसे पूरे विद्यालय में झाड़ू लगवाई | शिक्षक तो शिक्षक बल्कि त्यागी समाज के छात्र भी लेखक को जातिसूचक गाली से संबोधित करते थे | ओमप्रकाश पढने लिखने में एक अव्वल छात्र थे और तमाम कठिनाइयों के बावजूद वो प्रत्येक विषय में किसी भी सुविधा संपन्न वर्ग के बच्चे से बेहतरीन समझ रखते थे, उसके बावजूद कोई भी शिक्षक उन्हें देखना तक नहीं चाहता था | ओमप्रकाश के साथ यह बर्ताव आगे भी होता रहा | लेखक बारहवीं की विज्ञान के विषय में लिखित परीक्षा में सबसे अधिक नंबर लाते हैं लेकिन जातिवादी शिक्षक ने उन्हें प्रायोगिक परीक्षा व मौखिक साक्षात्कार में कम नंबर देकर अनुतीर्ण कर दिया | आइआइटी से लेकर जेएनयू व तमाम सरकारी नौकरियों में प्रायोगिक व साक्षात्कार के नाम पर दलित छात्रों को कम अंक देकर बाहर व अनुत्तीर्ण करने की मनुवादी परम्परा अब भी जारी है | जब लेखक के साथ यह हुआ तो उनके मनोव्यव्था को उनके ही शब्दों में समझते हैं,
“इस घटना ने अचानक मेरे सामने भयानक गतिरोध उत्पन्न कर दिया था. मेरा मन उचट गया था. समझ में नहीं आ रहा था, क्या करूँ. एक अँधेरा मेरे सामने खड़ा था . घर-परिवार में जैसे मातम छा गया था. पिताजी अफ़सोस जाहिर करके चुप हो गये थे. मै बुझ सा गया था. किसी काम में मन नहीं लगता था. बहुत बैचेनी भरे दिन थे” (वाल्मीकि, पृष्ठ संख्या, 83).
शैक्षणिक संस्थान दलित समाज के छात्रों को ऐसे मनोवैज्ञानिक दबाव में धकेल देते हैं जहाँ से उनके लिए उबरना मुश्किल होता है | इसमें कोई दो राय नहीं है कि भारत के शैक्षणिक संस्थान आज भी दलित समाज से आए छात्रों के साथ इस प्रकार की प्रत्येक दिन की हिंसा (everyday violence) के माध्यम से उन्हें अपने ही शैक्षणिक संस्थानों में एक प्रकार की निर्वासित जिन्दगी जीने के लिये मजबूर करता है | द्रोनाचार्यों के द्वारा इस हिंसा व् निर्वासन में धकलने के कई नये साधन विकसित किये जा चुके हैं जहाँ पर प्रत्येक दिन दलित छात्रों को इससे जूझना पड़ता है (Lakshman, 2023) |
लेखक की आत्मकथा हमें अपने शैक्षणिक संस्थानों के नींव में स्थापित प्राचीन विद्या परंपरा व गुरु परम्परा की महिमामंडन की खोखली सच्चाई से अवगत कराती है |
आखिर द्रोनाचार्यों को कैसे चुनौती दें ?
लेखक की किताब इस मायने में असाधारण है कि यह उन समाज के छात्रों के लिए ऐसे द्रोनाचार्यों से लड़ने की राह दिखाता है जो इतिहास में पहली बार शैक्षणिक संस्थानों में अपनी कदम रखते हैं | यह पुस्तक सदियों से निर्वासित समाज को अपने अधिकारों के लिए लड़ने का राह दिखाता है | इस वाक्य का मतलब समझने के लिए हम लेखक की जिन्दगी में वापस लौटते हैं जहाँ से आज के शैक्षणिक संस्थानों में पढ़ रहे दलित समाज के छात्र सीख ले सकते हैं । जैसे जब कलीराम त्यागी नाम के हेडमास्टर ने लेखक को लगातार तीसरे दिन पूरे स्कूल में झाड़ू लगाने को कहा तो उसी वक़्त लेखक के पिता ने अपने बच्चे को ऐसा करते देख लिया, जिस पर वो जोर से दहाड़े । लेखक लिखते हैं कि उनके पिताजी का जातिवादी हेडमास्टर कलीराम को इसप्रकार चुनौती देना ने उनके भविष्य को गढ़ने में योगदान दिया । दूसरी घटना तब की है जब लेखक के देहरादून के कॉलेज में पहुंचने पर कुछ छात्र उनके कपडों का मजाक उड़ाते हैं, तो लेखक के एक दोस्त उन्हें धमकाते हैं कि वो आइन्दा ऐसा न करें, तत्पश्चात वो छात्र लेखक का मजाक उड़ाना बंद कर देते हैं । लेखक लिखते हैं कि उन्हें देहरादून आकर समझ आया कि बर्दाश्त और सहन करने की आदत ने उनसे कितना कुछ छीन लिया है । इस क्रम में तीसरी घटना तब की है जब लेखक आर्डिनेंस फैक्ट्री अम्बरनाथ के ट्रेनी थे, और दलित पैंथर्स के समर्थन में लेख लिखते हैं । ज्ञात होने पर आर्डिनेंस फैक्ट्री का प्रिंसिपल उन्हें बुलाकर लेख लेखन के बारे में पूछता है और लेखक हाँ में जवाब करते हैं । फिर प्रिंसिपल उन्हें चेतावनी देकर छोड़ देता है । हालांकि इस घटना के बाद लेखक के बहुत सारे मित्रों का व्यवहार बदल जाता है लेकिन इसके बावजूद भी लेखक अपनी दलित पहचान को कभी नहीं छुपाते और हर जगह अपनी पहचान को अपनी ताकत बनाकर स्वयं व दलित के अधिकारों हेतु संघर्ष करते हैं । यह पुस्तक इंतज़ार से आगे बढ़कर संघर्स व् कारवाई के लिए जोर देता है |
निष्कर्ष के मायने
दरअसल हमारे समाज की बनावट ऐसी है जिसमें उच्च जाति के लोगों को निचली जाति के लोगों को न देखने की और न सुनने की आदत होती है । उन्हें दलित समाज की आवाज व तना हुआ चेहरा कभी सुनने व देखने का अभ्यास नहीं होता तथा न ही ये उनके अनुभव कभी किए होते हैं । जब ऐसे समाजों के छात्र इन शैक्षणिक संस्थानों में आते हैं, बोलते हैं, हँसते हैं लेकिन जब अन्य वर्ग के छात्र द्रोणाचार्यों के प्रिय अर्जुनों को पढाई में पीछा छोड़ देते हैं तो उन्हें यह सब पसंद नहीं आता, उन्हें यह नागवार गुजरता है । परिणामस्वरूप इन परिस्थितियों में वो समाज के दलित व् अन्य पिछड़े वर्ग के छात्रों को उनकी जाति या कोटाधारी के नाम से प्रताडित करना शुरू कर देते हैं । लेखक ‘जूठन’ के माध्यम से इन बातो को कई प्रसंगों में बेहद ही साफगोई से पाठक के सामने रखते हें ।
लेखक से हम सीखते भी हैं कि एक समय के बाद बर्दास्त करने की आदत छोडकर जवाब देना व लड़ने को अपनी ताकत बनाना ज़रूरी है । जूठन पुस्तक हमें इस बात की ओर भी इंगित करती है कि किन-किन माध्यमों से भारतीय शिक्षण संस्थान दलित समाज के छात्र के लिए शिक्षा के माध्यम से बनी उसकी गतिशीलता (mobility) के अवसरों को कुचलने के साथ साथ एक मर्यादा और गरिमा पूर्ण ज़िन्दगी को भी अनवरत इंतज़ार और निर्वासन कि ओर धकेलता है ।
एक राजनीति शास्त्र के अध्येता होने के नाते हमें ज्ञान के ऐसे स्त्रोतों को पढने व समझने की जरुरत है जिसमें अनुभव को बिना किसी लाग-लपेट के लिखा गया हो, जूठन नामक पुस्तक हमारी इस खोज को पूरा करती है । और मैं जोर देकर कहना चाहता हूं कि ऐसी पुस्तकों को समाज विज्ञान के पाठ्यक्रम में एक अनिवार्य विषय के तौर पर पढाये जाने की जरुरत है । ताकि हम शैक्षणिक संस्थानों में उन सिद्धांतों को स्थापित करने की ओर प्रेरित हो सके जिससे हम विशेष वर्ग की जातिवादी प्रवृत्ति को उजागर कर संस्थानों को संवैधानिक मूल्यों के तर्ज पर बना सकें |
सन्दर्भ
- वाल्मीकि, ओमप्रकाश (1997). जूठन. राधाकृष्ण पेपरबैक्स.
- Lakshman, A. (2023, February 24). The Kota-quota hierarchy at IIT. The Hindu. https://www.thehindu.com/news/national/the-kota-quota-hierarchy-at-iit/article66546633.ece
- Sukumar, N. (2022). Caste Discrimination and Exclusion in Indian Universities: A Critical Reflection. Routledge India.

नीतिश कुमार जवाहरलाल नेहरू विश्विद्यालय में राजनीति शास्त्र के शोधार्थी हैं और वर्तमान में ‘भारतीय न्यायपालिका में जाति का प्रश्न’ विषय पर शोध कर रहे हैं.





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