पुस्तक : बेगम्स ऑफ अवध , लेखिका के.एस. सांथा, भारती प्रकाशन, संस्करण  सन १९८० , स्थान  वाराणसी , उत्तर प्रदेश , कुल पृष्ठ ३७७, एस. बी. एन. 9380550030, दाम ७५०

by Sameer Mani Tripathi

 के. एस. सांथा द्वारा लिखित पुस्तक ‘बेगम्स ऑफ अवध (Begums of Awadh)’ 1980 ईस्वी में प्रकाशित हुई थी | इस पुस्तक के माध्यम से लेखिका, हमें अवध की स्थापना से लेकर उसके ब्रिटिश साम्राज्य में विलय और तदुपरांत 1857 ईस्वी के विद्रोह तक की ऐतिहासिक यात्रा में, बेगमों की राजनीतिक भूमिका पर पाठक का ध्यान आकर्षित करने का एक सफल प्रयास करती हैं | यह किताब किसी इतिहासकार के द्वारा अवध की बेगमों और उनके क्रियाकलापों के आलोचनात्मक विश्लेषण को समर्पित प्रथम प्रयास है | सांथा लेख में इस तथ्य पर अधिक बल देती हैं कि जब-जब किन्ही परिस्थितियों के फलस्वरुप आवश्यकता प्रतीत हुई, तब-तब बेगमों नें राज्य की आंतरिक और बाहरी राजनीतिक गतिविधियों में हस्तक्षेप किया | [i] हालांकि इस पुस्तक का सूक्ष्मता पूर्वक अध्ययन करने पर यह भी साबित होता है कि कई बार राजनीति में हस्तक्षेप करना बेगमों के लिए आर्थिक, सामाजिक तथा राजनीतिक रूप से हानिकारक सिद्ध हुआ | इसका एक बहुचर्चित उदाहरण ‘बहु बेगम’ का अपने पुत्र नवाब आसफ-उद-दौला के साथ अवध के शाही खजाने के ऊपर अधिकार को लेकर हुआ संघर्ष है| लेखिका बड़ी चतुराई से यह स्थापित करने में सफल हो जाती हैं कि अवध की सबसे प्रभावशाली बेगम और नवाब के बीच के संघर्षों का फायदा ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी उठाती है| यह उदाहरण हमारे समाज में प्रचलित एक प्रसिद्ध लोकोक्ति ‘दो बिल्लियों की लड़ाई में पूरी रोटी बंदर खा गया’ को पूरी तरह चरितार्थ करती है | बेगम और नवाब दोनों ही अपने राज्य के आंतरिक मामलों में कंपनी को मध्यस्थता के लिए आमंत्रित करते हैं और कंपनी अपनी सुविधानुसार अपने पक्ष का चुनाव करती है | अनेक अवसरों पर लेखिका हमें नवाब, बेगमों  और ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के बीच के महत्वपूर्ण परन्तु कम चर्चित संबंधों से अवगत कराने का काम करती है | उदाहरणार्थ बहु बेगम ने कंपनी के समक्ष अपना पक्ष रखने के लिए एक हिजड़े(ख्वाजासराय) बहार अली खान को अपना प्रतिनिधि बनाकर कलकत्ता भेजा था और लेखिका बेगम, नवाब, तथा कंपनी के प्रतिनिधियों के मध्य बातचीत का अत्यंत रोचक विवरण प्रस्तुत करती हैं |

यह ऐतिहासिक कृति सदर-ए-जहाँ बेगम, बहु बेगम, बादशाह बेगम,बेगम हज़रत महल इत्यादि बेगमों के साथ ही अन्य कम महत्वपूर्ण बेगमों का भी उल्लेख करती है |  अगर ईमानदारी पूर्वक बात की जाए तो मुझे ऐसी कई सारी जानकारियाँ मिली, जिसके विषय में इतिहास का विद्यार्थी होने के पश्चात भी मैं उनसे अनभिज्ञ था | मिसाल के तौर पर हममें से कितने लोगों को यह पता होगा कि 1837 ईस्वी में बादशाह बेगम ने एक तख्तापलट की कोशिश की थी | यदि इस पुस्तक में सबसे उल्लेखनीय प्रसंगों की बात की जाए तो लेखिका, हमें बेगम हजरत महल का उदाहरण देते हुए बताती हैं कि किस प्रकार 19 वीं शताब्दी की राजनीतिक अस्थिरता ने एक तलाकशुदा बेगम को 1857 के विद्रोह के दौरान लखनऊ का सर्वेसर्वा बना दिया | यह शोधकार्य हमें एक ऐसे विषय से रूबरू कराता है जो कि शायद अपने समसामयिक दौर में अवध के इतिहास-लेखन में एक ‘वैकल्पिक इतिहास-लेखन’ की अवधारणा प्रस्तुत करता है| इसके अतिरिक्त लेखिका अपने इस ग्रंथ में अवध साम्राज्य में हिजड़ों(ख्वाजासरायों) की भूमिका का संक्षिप्त परंतु अत्यंत रोचक और ज्ञानवर्धक वर्णन करती हैं |

20 वीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध ऐतिहासिक लेखन की अनेक अवधारणाओं पर आधारित नयी बहसों जैसे सामन्तवाद, राज्य-निर्माण की प्रक्रिया, सबाल्टर्न (उपाश्रित वर्ग) का अध्ययन आदि के अभ्युदय का साक्षी बना | ये सभी नयी ऐतिहासिक लेखन प्रवृत्तियां इस बात का उद्घोषणा करती थीं कि वो इतिहास के उन पहलूओं पर चर्चा करना चाहती हैं जिनके बारे में प्रचलित इतिहास चर्चा नहीं करता। यहाँ एक विचारणीय संदर्भ यह भी है जब कभी भी किसी वैकल्पिक इतिहास की ओर इंगित किया जाता है तो उसमें महिलाओं के योगदान(यदि प्रमुखता से कहें तो किसी महिला द्वारा महिला प्रधान इतिहास लेखन) की तरफ जरूर इशारा किया जाता है। इस बात की प्रबल संभावना है कि कई सारे पाठक/विद्वान मेरी इस बात से सहमत ना हों, परंतु इस वास्तविकता से कोई इंकार नहीं कर सकता है कि बिना महिलाओं के इतिहास के ‘वैकल्पिक इतिहास’ की बात बेमानी है। इसी दौर में सांथा की यह किताब प्रकाशित होती है | उस समय जब आवागमन इतना सुलभ और सुरक्षित नहीं था, ऐसे समय में जिस उत्कृष्टता के साथ देश के विभिन्न अभिलेखागारों में उपलब्घ स्रोतों की पहचान करना और ब्रिटिश राज के दौरान के उपलब्ध पत्राचारों के आधार पर महिला केंद्रित इतिहास लिखना एक अत्यंत ही सराहनीय प्रयास था | यद्यपि ये ग्रंथ किसी भी प्रकार से खुद को किसी वैकल्पिक या महिला केंद्रित इतिहास लेखन से प्रभावित होने का दावा नहीं करता, परंतु इसके अध्ययन के समय एक पाठक/विद्यार्थी के रूप में आपके समक्ष ये सारी बातें स्पष्ट हो जाती हैं |

उपरोक्त वर्णित सारी खूबियों के बावजूद भी ऐसा नहीं है कि यह कृति पूर्णतया त्रुटि विहीन है | इसको पढ़ते समय ऐसा अनुभव होता है कि कहीं ना कहीं ये किताब एक प्रकार बेगमों की राजनीतिक जीवनी बन कर रह जाती है | यद्यपि कुछेक अवसरों पर उनके व्यक्तिगत जीवन और हरम में विद्यमान आपसी द्वंद को दिखाया गया है |  इस किताब के अध्ययन से मन में ऐसा भाव उत्पन्न होता है कि काश! इसमे अवध की आम महिलाओं की स्थिति अथवा हरम में घटित होने वाले सामाजिक और आर्थिक कारकों की थोड़ी सी और विस्तृत चर्चा की गई होती | इसके अतिरिक्त लेखिका पुस्तक की प्रस्तावना में अपने पाठकों से जिस ‘आलोचनात्मक विश्लेषण’ की बात कहती हैं, वो हमें ज्यादातर समय इस चर्चा में उपलब्ध नहीं होता है | इस किताब को पढ़ते समय मुझे ब्रिटिशों की भूमिका के बारे में लेखिका के विचारों से असहमति और आश्चर्य दोनों की अनुभूति हुई | यदि कुछेक घटनाओं जैसे बादशाह बेगम द्वारा तख्तापलट की कोशिश और 1857 के विद्रोह आदि को अपवादस्वरूप छोड़ दिया जाए, तो सांथा ने इस पूरी पुस्तक में ब्रिटिश कंपनी और उसके नुमाइंदों के प्रति तटस्थता की नीति अपनायी है, जबकि उनके द्वारा प्रस्तुत घटनाक्रम उन्हें तटस्थ रहने की अनुमति नहीं प्रदान करते | 

व्यक्तिगत तौर पर मुझे ऐसा अनुभव होता है कि  विगत वर्षों में ‘मुगल हरम’ के उपर अनेक प्रामाणिक और शैक्षणिक जगत में प्रचलित मानदण्डों को तोड़ने वाले लेखन कार्य किए गए हैं |[ii] उसकी तुलना में उसके उत्तरी भारत में ‘उत्तराधिकारी राज्य’ अवध की ‘जनाना राजनीति’ पर आधारित शोध कार्यों की कमी है | ऐसी परिस्थिति में यह किताब अवध की बेगमों के ऊपर भविष्य में होने वाले शोध कार्यों के एक पथ-प्रदर्शक की भूमिका का निर्वहन कर सकती है | निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि उपरोक्त पुस्तक हमें अवध की शाही परिवार की महिलाओं के अनेक अनछुए पहलुओं से हमें अवगत कराती है| आखिरी में पाठकों को हमारा यही सुझाव है कि अपनी कुछ सीमितता के बावजूद यह एक ऐसी किताब है जिसको पढ़ा जाना चाहिए |


[i]  सांथा, पृष्ठ. viii.

[ii] ऐसे इतिहासकारों में रूबी लाल, रेखा मिश्रा, इरा मुखोटी, रुखसाना इफ्तिखार के नाम प्रमुख हैं |


Sameer Mani Tripathi is a research scholar of medieval history at the Centre of Historical Studies, Jawaharlal Nehru University, Delhi. His particular area of academic interest is the transition phase of the early medieval era and the transition from the medieval to the early modern period from the perspective of state formation, gender history and military history.

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